Life in a Metro......
In all the glitterings of our Metros, there is another life in Metro......expressed through this poem....... मे कौन सोचता है? मे कौन सोचता है? वो फच्चा जो कायों के शीशे ऩोंछ्ता है जो दौड़ता है,जफकक रार ससग्नर मा ससऩाही सफको योकता है जजसके सरमे ककसी रुकी हुमी काय का खुरता शीशा ककस्भत खुरने के सभान है गाड़ी ऩोंछ्ने ऩय उस शीशे भें से कोई चॊद ससक्के दे दे जजसके ददर भें फस इतना ही अयभान है जजसकी ककस्भत भें फस सूखी योदिमाॉ, पिे कऩड़े औय एक गॊदी सी फस्ती भें िीन का भकान है जजसके सरमे सदी का कम्फर औय फारयश की छ्तयी मे खुरा आसभान है; वो ददन बय भें कैसे अऩनी छोिी-छोिी आॉखों के फड़े-फड़े सऩनों का सऩनों का गरा घोंिता है? मे कौन सोचता है? मे कौन सोचता है? कक वो फच्चा जो सड़क ककनाये बीख भाॉग यहा है, ककसी से काय औय कोठी तो नहीॊ ससपफ ऩेि बयने को चॊद ससक्के भाॉग यहा है, उसे बी कोई शौक नहीॊ है हाथ पैराने का औय हय दूसये-तीसये आदभी से गारी खाने का रेककन वो भज़फूय है क्मोंकक उसके भाॉ-फाऩ के ऩास ऩैसे नहीॊ हैं; उसभें औय तुभभें अन्तय फस इतना है कक उसके भाॉ-फाऩ, तुम्हाये भाॉ-फाऩ जैसे नहीॊ हैं; तुम्हाये स्कूर भे